Friday 24 February 2017

प्रेम-अगन

जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड के बाद फ़रवरी की गुनगुनाती धूप के आँचल में बसंती पवन की मदमस्त चाल दीवानगी के रोग की एक मशहूर वज़ह पाई जाती है, ऐसे में जनवरी के माह में मकर संक्रांति के त्यौहार में आसमान में उड़नें वाली पतंगों की ओट में नैनों के पेंच इस छत से उस छत पर दिखाई देना बहुत ही मनोरम दृश्य रहता रहा है, ये सिलसिला यूँ ही मार्च महीने के होली के रंगीन नजारों तक अनवरत जारी रहता है |
    वैसे एक बात तो गौरतलब है कि इंसान हो या और कोई जीव सभी के मन को बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के प्रीत का एहसास एक अज़ीब से नशे में डूबने को मजबूर कर देता है, जिसमें चार जोड़ी आँखों की गुस्ताखियों की हमेशा से ही बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका पाई जाती रही है, इन सबमें अक्सर पड़ोसिनें अक़्सर खूबसूरत ही होती हैं और फिर अनेक वज़हों से , कई रिश्तों-नातों की बोलियों-ठिठोलियों की दियासलाई से न जानें कब, कैसे प्रेम -अगन की ज्वाला किसी के भी मन को भीतर ही भीतर जलाने लगे ये कोई नहीं जान सकता|
     ठीक इसी तरह अपनी कुछ उलझनों का हल पाने को बेताब, अनेकों जिज्ञासाओं को लेकर नादिरा ने अपनी सखी राधा से अपनी आवाज़ में हल्का ग़ुस्सा लिए पूछा - " राधा, एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि ऐसा क्यों होता है ?"
नादिरा का चेहरा देख नटखट राधा के होंठो पर मुस्कराहट खेल गयी - " कैसी बात नादिरा" राधा ने पुछा |
" यही कि चाहे-अनचाहे ये कमबख्त प्यार-मोहब्बत का टोकरा लिए हर दूसरे दिन कोई न कोई सामने आकर जबरन हाज़िर हो जाता है, क्या बला है ये भी"
नादिरा की बात सुनकर राधा ठहाका मार कर खिलखला पड़ी, बमुश्किल अपनी हंसी को रोकते हुए बोली कि-" अरे मेरी प्यारी सखी, ये इश्क़ है, प्यार है, मोहब्बत है कोई बला नही है री, ये प्रेम वो अगन है जो लगाये न लगे और बुझाये न बुझे, कितने ही रिश्ते , सपनें सब इस अगन में जलकर राख़ हो जाते मगर ये लाइलाज रोग जैसे ही होता है क्योंकि दिल जो होता है न सबका वो तो किसी सूरत में नहीं मानता जी "
दोनों सखियाँ अपनी ही बातों पर हँसते-हँसते लोटपोट होने लगीं |
----- नीरु (निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी)

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