Friday 12 June 2015

शीतल छाँव तुम

जलते-तपते हुए जीवन में शीतल- मधुर छाँव हो तुम
पलकों की पगडंडियों पर तो सपनों के गाँव हो तुम

मैं सुखों की शाम बनी तुम आशाओं की भोर हुए
मैं प्यासी धरती जैसी  तुम तो घटा घनघोर हुए
मिल जाती चाहत को मंजिल मेरे वो लगाव हो तुम 

जलते-तपते हुए जीवन...

पलकों की पगडंडियों....

 विह्वल- विभोर होकर जब तुमने पुकारा है मुझको
अनुभूतियों ने दिल की तो फिर संवारा है मुझको
उबारे उलझन से मुझे विश्वास की वो नाँव हो तुम

जलते-तपते हुए जीवन....

पलकों की पगडंडियों...

अतृप्त मन-जीवन है तो कभी मधुमास दिया
कभी सराहे जगत यूं तो कभी परिहास किया
नही पराजय कोई जग- शतरंज में वो दाँव हो तुम

जलते-तपते हुए जीवन में शीतल- मधुर छाँव हो तुम

पलकों की पगडंडियों पर तो सपनों के गाँव हो तुम
---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

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