सिहर-सहम उठता ये ज़माना हर आँख रोई
जिंदगी ने जब- जब भी अर्थी मौत की ढोई
कहीं टूटे सपनें किसी के छूट गये अपने
पाया इस दर्द को जिसने कब भूलता कोई
--- निरुपमा मिश्रा " नीरू "
मन के बोल पर जब जिंदगी गहरे भाव संजोती है, विह्वल होकर लेखनी कहीं कोई संवेदना पिरोती है, तुम भी आ जाना इसी गुलशन में खुशियों को सजाना है मुझे, अभी तो अपनेआप को तुझमें पाना है मुझे
Monday 27 April 2015
दर्द
Monday 20 April 2015
लौट आना प्रिये
उगते हुए सूरज हो तुम
अभी
बहुत होगा वंदन- अभिनंदन ,
पर दर्प से दीप्ति तुम्हारी प्रसन्नता
जब चरम पर होगी क्या देख सकोगे
तुम किसी मन की पीड़ा ,
फिर जब तुम ढलने लगोगे
होंगे द्वार बंद प्रशंसा के
कौन समझेगा तुम्हारी पीड़ा ,
तब भी तुम्हारे सहारे
हैं ये जो चाँद - सितारे
घर आने की तुम्हारी
राह देखेंगे
कि लौट आना प्रिये
जीवन के पथ पर
द्वार खोले मिलेगा
तुम्हें कोई अपना
तुम्हारी रश्मियों में
देखने को
अपना सवेरा
---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'
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