प्रियतम अनुगामी
चली मैं
आत्ममुग्धा- सी,
प्रेमिल- स्पर्श-पवन
जैसे हो जीवन -अमृत,
क्षितिज के पार
मिलन तत्पर
अम्बर और वसुंधरा
मिलना भी है अनुपम
शाश्वत युग से निर्धारित ,
विह्वल सुकोमल कामिनी
पुष्प -वर्षा सी जलबिंदुयें
हो विभोर चल पड़ी
प्रेमपथगामिनी
सहज संकोच लज्जानवत
----- निरुपमा मिश्रा "नीरु "
मन के बोल पर जब जिंदगी गहरे भाव संजोती है, विह्वल होकर लेखनी कहीं कोई संवेदना पिरोती है, तुम भी आ जाना इसी गुलशन में खुशियों को सजाना है मुझे, अभी तो अपनेआप को तुझमें पाना है मुझे
Friday 30 January 2015
प्रियतम अनुगामी
नन्ही शक्सियत
नन्ही शक्सियत
जिसे कहते हैं हम
आने वाला कल
आज यहीं कहीं
तो खोया होगा ,
हम हाथ में लेकर
जुगनुओं को
खोजते हैं
उसका पता-ठिकाना
और रचते जाते हैं
फूल-पत्ती-मौसम-बहार
नफरत-प्यार के किस्से ,
नज़र उठती है तो दिखती हैं
बड़ी - बड़ी कतारें ,
बस नही दिखते
तो वो अस्पष्ट अक्षर
जिन्हें खड़ा करके
हाशियों में
हम भूल जाते हैं
थमाकर
पत्थर - सी जिंदगी
चबाने के लिए
दूध के दाँतों से
------ निरुपमा मिश्रा " नीरु "
Tuesday 27 January 2015
दोहे
विपदा के दिन भी भले, रहते हैं दिन चार
हित- अनहित का भेद दें, सिखायें जगत सार
अंखियन की आशायें , लखे सहज मनमीत
हृदय सुनाये क्यों वही, विरह के विगत गीत
मन में रही व्याकुलता , अब अवलोकित भोर
श्याम डगर नित निहारे, राधा भाव विभोर
----- निरुपमा मिश्रा "नीरु "
Monday 26 January 2015
भारत ऐसा गणतंत्र रहे
सदा गणना में श्रेष्ठतम भारत ऐसा गणतंत्र रहे
सुरक्षित स्वाभिमान देश का हम रखकर ही स्वतंत्र रहे
भेद,अभाव,विषमताओं के बंध त्याग चलें सब साथ
उन्नति ,सुशासन,अनुशासन प्रतीक ये प्रजातंत्र रहे
----- निरुपमा मिश्रा "नीरु "
Sunday 25 January 2015
मन के बोल
फेसबुक मित्र निरुपमा मिश्रा "नीरु " का दैनिक लोकजंग प्रकाशन -भोपाल से प्रकाशित काव्य संग्रह "मन के बोल" पिछले सप्ताह डाकिया पकड़ा गया, नीरु से मेरा धर्म बहन का नाता । शायद किसी अच्छे प्रकाशन तक न पहुँच पाने के कारण आनन-फानन में छप गई ,संग्रह को जो महत्व मिलना चाहिए वह शायद न मिल पाये ,क्योंकि न तो बड़ा प्रकाशन है और न तो उस पर अभिमत लिखने वाले कथित बड़े लोग ,प्रकाशन के तिलस्मी संघर्ष में अक्सर सीधे - साधे लोग हार जाते हैं और तब जो भी हाथ आगे बढ़ता है उसी को स्वीकार कर लेते हैं ।
संग्रह शीर्षक "मन के बोल" सार्थक है क्योंकि प्रायः सभी कविताएँ समय - समय पर मन के भीतर उपजी भावनाओं का शब्द चित्र हैं । नीरु ने जीवन के अधिकांश पहलुओं का सामना किया है, उसके मन की शून्यता में भावनाओं का प्रवेश एक चुप आलोड़न का आगाज़ करता है , नीरु का चित्र और कविता में उठते विषय अन्योन्याश्रित आभास कराते हैं जैसे कोई खुद में खोया आदमी यह जानते हुए कि मेरे विचारों का किसी के लिए शायद कोई महत्व न हो,फिर भी अपनी बात तो रख दो । नीरु भीतर पल रहे दर्द को खुद सबके सामने नहीं रखना चाहती इसलिए कि बताने पर तमाशा होगा ,ज्यादा अच्छा कि लोग खुद पढ़ लें,पढ़ तो वही सकता है जिसके अनुभावन का आकाश व्यापक हो । " सुनि इठलइहैं लोग सब, बाँटि न लइहैं कोय " इसलिए वह कहती है "आसान नही होता /मायूस निगाहों /का दर्द पढ़ना /------ आसान नही होता /अपने आप से निकलना/ आसान नहीं होता /किसी के दर्द में पिघलना "
नीरु भावनाओं के आकाश में केवल काल्पनिक उड़ान नहीं भरती ,जीवन की " हकीकत" को भी स्वीकार करती है,वो भावुक प्रेम से परे यथार्थ दाम्पत्य संघर्ष को जीवन का अविभाज्य हिस्सा स्वीकार करती है , "प्रेम की नदी/जब कर्तव्यों के/सागर से/मिलती है/भंवर भी/ज्वार -भाटे भी आते हैं " । अफसोस और आह से परे जीवन को संघर्ष मान घायल ही सही आगे बढ़ने का हौसला दुर्लभ तो है पर कवयित्री के लिए काम्य है । "किनारे " कविता में जीवन के रणांगन से उठकर अज्ञात सत्ता से साक्षात्कार कर वह अपने अँधेरे में एक सूर्य ढूँढ़ लेती है "कि चाँद -सितारों /में रोशनी तुमसे है/मेरी साँसों के सितार पर/जीवन -रागिनी तुमसे है" ।
संग्रह में जहाँ पारिवारिक मित्र "गाय " के अस्तित्व से गहरा लगाव है वहीं दाम्पत्य जीवन की सहज समस्याओं पर गद्यात्मक चिंतन भी । "स्त्री" जीवन को भोग्या और दासी समझने वालों के लिए नसीहतें भी हैं । नीरु की खासियत है कि उसे गुस्सा आता है पर वह हमलावर नही होती , हर जगह समझाने की कोशिश होती है । पुरुष की कठोरता से भी आक्रोश नही है वो दोषी भी नही ठहराती पर तर्क साबूत रखती है,वह कठोरता की व्यर्थता बताते हुए कोमलता अपनाने की सलाह देती है । उम्रदराज पर तलवार भांजने वाली पीढ़ी को सावधान करती है "उमर की ये ढलान /हमारी भी तो आयेगी /नौजवानी की हमारी /ये नादानी / तब बहुत हमें तड़पायेगी " ।
नीरु कवि के अस्तित्व को तुलनीय बनाने से रोकती है,कोई कवि की औकात नापने की कोशिश करे तो उसे सहन नही होता "बड़ा दुःखद है/ जब अनमोल/कवि हृदय की/ बोली लगाई जाती है " । समकालीन समाज में आई विकृतियों पर संग्रह में बड़े नुकीले प्रश्न खड़े किये गये हैं । "जन्मदिन " के मौके पर बेतरह उन्माद को सवालों के घेरे में खड़ा किया गया है " जन्मदिन /जीवन की सार्थकता /के आंकलन /का दिन " ।
पूरे संग्रह में कवयित्री का एक दार्शनिक मनोभाव पसरा है, जहाँ न कोई हमला है न कोई रगरा है पर एक आईना जरुर है ,आप चाहे तो निहार लो खुद को ,जिसे निहारे बिना आप आगे बढ़ भी नही सकते , बढ़ भी गये तो सुकून से रह भी नही सकते । नीरु की कविताओं में यथार्थ का धरातल कहीं छूटने नही पाता ,चाहे वह भौतिक जगत हो या आध्यात्मिक । संतुलन की एक गहरी आकांक्षा सर्वत्र दृष्टव्य है , जहाँ इसका उल्लंघन होता है वहाँ मौन विद्रोह खड़ा हो जाता है । " प्रश्नचिन्ह " शीर्षक कविता इस संग्रह में सर्वाधिक घनत्व के साथ उभरती है,जहाँ पहले उपेक्षा किन्तु सफलता पर श्रेय लेने के दावे पर गहरा कटाक्ष होता है "तुम्हारी देहरी पर रखा दीपक /प्रतीक्षा में रहा वर्षों तलक/-------- फिर से दीपक के मन में/ कहीं अँधेरा पलने लगा/तुम्हारा ये प्रेम उसे /प्रश्नचिन्ह बन कर छलने लगा"
---- रमाशंकर शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक
पता - विन्ध्यवासिनी कालोनी
नहर के पास, भुरुहाना रोड
मिर्जापुर - उत्तर प्रदेश
पिन -231001
Friday 23 January 2015
विद्यादायिनी
नही भ्रमवश तितिक्षायें, उपासना नित ज्ञान
विस्मृत लोभ - लिप्सायें, आराधन का ध्यान
आराधन का ध्यान , निशिदिन विद्यादायिनी
उल्लासित मन सदा, प्रखर बुद्धि सुखदायिनी
रत क्यों छल - दंभ में , भावना क्यों तृषित रही
प्रेम - उदारता से, कब- क्या संभव है नही
----- निरुपमा मिश्रा "नीरु"
Thursday 22 January 2015
सत्य से भ्रमित नयन क्यों ?
सत्य से भ्रमित नयन क्यों ?
लक्ष्य से थकित चरण क्यों ?
साथ हों हृदय की संवेदनायें,
भाव में प्रणव की आराधनायें,
दर्प से दमित वदन क्यों ?
सत्य से भ्रमित नयन क्यों ?
क्यों हुआ विचलित मन
कर्म के पथ पर,
हो सदा प्रेम सज्जित
मर्म के पथ पर,
भय से कथित वचन क्यों ?
सत्य से भ्रमित नयन क्यों ?
भ्रम मन के कवित्व में
कोई नही,
कलम स्वयं दायित्व से
रोई नही,
यश से इच्छित नमन क्यों ?
सत्य से भ्रमित नयन क्यों ?
----- निरुपमा मिश्रा "नीरु"