Wednesday 23 December 2015

संगिनी

कह दो
तो दिन को
भी मैं रात कह दूँ
तपती हुई धूप
को भी
भीगी- भीगी सी
बरसात कह दूँ,
क्या मिलेगी इससे
तुम्हें
सम्पूर्ण खुशी
कि
कठपुतली - सी
बनकर रहे
तुम्हारी प्रेयसी,
रूढ़ियों के पार
तुम क्यों नही जाते,
कारागार से निकल
अपनी संपूर्णता
क्यों नही अपनाते ?
मेरा आँचल इतना
छोटा तो नही
कि माँ जैसी ममता
बहन जैसा दुलार
दोस्त के जैसा प्यार
नही संभाल सके,
तुम्हारे दामन में
ढलकर भी
अपना अस्तित्व नही
संभाल सके,
हमने संभाली हैं
इसमें ही
पीढ़ियाँ
फिर क्यों इतना
असमंजस में हो
मुस्कराओ प्रिये
कि तुम अपनी
संगिनी के
हृदय-मधुरस में हो
-----  नीरु 

Sunday 29 November 2015

चिराग़

साथ दिल के चिराग़ जलते हैं
ये हुनर भी कमाल रखते हैं  

रात काली रही किसे है ग़म
रोशनी का वजूद रखते हैं

दे गया ख्वाब फिर नया कोई
प्यार के रंग खास सजते हैं

हो सके तो वहीं नज़र रखना
दिल कहाँ किस तरह मचलते हैं 

राज़ की बात कह गईं आँखें
आप फिर भी सवाल करते हैं
---- निरुपमा मिश्रा

Monday 16 November 2015

किससे कहें

सह रहे हम चुपचाप क्यों, बयान किससे कहें
क्यों खोया सुकून, जिस्म बेजान किससे कहें
दहशतों-नफ़रतों का आखिरी अंजाम दर्द
यहाँ  इंसान हो रहा हैवान किससे कहें 
---- नीरु (निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी)

Saturday 14 November 2015

तितली के रंग

बचपन की प्यारी ताज़गी का ढंग  अभी बाकी है
लम्हों में  उनके जिंदगी का संग  अभी बाकी है
खो न जाये कहीं बचपन-सुकून-सपनों के बगीचे
नन्ही हथेली में तितली का   रंग अभी बाकी है
----- निरुपमा मिश्रा

Wednesday 11 November 2015

रोशनी का त्योहार

रोशनी होती दिलों में हमेशा प्यार से
मिटायें  हर ग़म का अंधेरा संसार से 
बेबसी के आँसू हों नही किसी आँख में
सीखते हम यही रोशनी के त्योहार से
----- निरुपमा मिश्रा

Tuesday 3 November 2015

रूठ गये तो

रूठ जायेगा रब
तो भी
वजह होगी
कि बनाई दुनिया
उसी ने
संभालेगा वही
सब,
रूठ जायेगा
ज़माना तो
वजह होगी
कि
चाहिये दुनिया
को
अपने मतलब
के लोग
कभी तो
कहीं तो
जरूरत होगी
ज़माने को भी
मेरी,
मगर
मेरे अपने
तुम
हाँ तुम्ही
रूठ गये तो
जीने की वजह
क्या होगी
मालूम नहीं
क्योंकि
अपनों के संग
होने की कोई
वजह तो नही होती
रिश्तों के बीच
अपनेपन की चाह
ये विश्वास की डोरी
बाँधती हमें
बेवजह भी
लेकिन
जब कभी
तलाशते
साथ होने की
वजह
तो अक्सर
अपने- आप से
रूठ जाते हम
खुद-ब- खुद
बेवजह
-----नीरु ' निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Friday 30 October 2015

तुम्ही रहते हो हर पल सपनीली निगाहों में

तुम्ही रहते हर पल सपनीली निगाहों में
रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में

कभी तो अक्स उभर आता 
कभी ओझल हो जाते हो ,
कभी सांसों के करीब

कभी बीते पल हो जाते हो 

तुम्ही तो बसते  हो मेरी कल्पनाओं में 

रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में

तुम वही हूबहू जिसको
दिल मेरा मोहब्बत कहता
तुम्हारी आरजू में ही
दिल मेरा धड़कता रहता
तुम्ही तो हरदम मेरे प्यार की चाहों में
रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में

मायूसियों में कभी मुझे
तुम मिटने नही देते
किसी भी ग़म में कभी
बेबस उलझनें नही देते 
जाने नही देते निराशा की पनाहों में 
रहना साथ जीवन की पथरीली  राहों में 

प्यार- भरोसा ही तो
सभी रिश्तों का सहारा है
सपनों से सजा हुआ
सुंदर संसार हमारा है 
डूबने पाये नही कश्ती कभी आहों में 
रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में

चाँद की गवाही में अपने
प्यार की रोशनी होगी
महफिल में सितारों की
महकी- महकी चाँदनी होगी 
खुशबुओं के रंग बिखर जायेंगे राहों में
रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में

तुम्हीं रहते हर पल सपनीली निगाहों में
रहना साथ जीवन की पथरीली राहों में
------ नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Thursday 22 October 2015

हौसला पतवार है

वक्त के आगे कहाँ चलता किसी का वार है
जो नही समझे समय पर तो गया वो हार है

कौन कितना है सही कोई कहे कैसे भला
हम सही हैं तुम गलत हो बस यही तकरार है

चाल चलने में लगी कैसी दिमागी  साजिशें
दिल बहुत मासूम धोखा  यार बेशुमार है

कह रहा है कौन अपने आप से ही बस यही
पास आयेगा किनारा हौसला  पतवार है

बीत जायेगा  समय जो खार बनकर है मिला
प्यार है जब साथ अपने कब खुशी दुश्वार है
------- नीरु 'निरुपमा मिश्रा  त्रिवेदी'



Wednesday 21 October 2015

खोल दे मन के द्वार

मुस्कान तेरी चंपई
रूप तेरा हरसिंगार
अब खोल दे मन के द्वार  

तन है थामें सांस जब तक
रहे शक्ति-आभास तब तक  
स्वयं तुम नदिया की धार
अब खोल दे मन के द्वार

लता पनपे तुमसे प्यार की
बगिया हो ममता-दुलार की
शक्ति का तुम ही उपहार
खोल दे अब मन के द्वार

भावनायें जब होती मनोहर
हो जाता जीवन सुमन- सरोवर
महक जाता है संसार
खोल दे अब मन के द्वार
-----  नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Tuesday 13 October 2015

क्यों

पत्थरों में ढाल दिया
अस्तित्व
और
यूं ही जीवन बीत गया
क्यों,
सबके गीतों को तो बोल दिये
अपने
पर स्वयं के सुख-दुःख का
खो संगीत गया
क्यों,
इंसान ही तो बेजान नही
कोई
स्पंदन तो कहीं बाकी
फर्ज निभा कर भी मिले पराजय
जग ये हरदम
जीत गया
क्यों,,
---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी' 

Monday 5 October 2015

कलियाँ

खुशबुओं से भिगोने अपने चमन को कलियाँ
छोड़कर जाती ये अपने बाबुल की गलियाँ
धान के पौधे सा कोमल है इनका वजूद
छलावों की धूप में स्वार्थ बरसाये दुनियाँ
----- निरुपमा मिश्रा

Friday 25 September 2015

उम्र

थामकर भरोसा नन्हे कोमल हाथों से
वो इठलाता हुआ बचपन
अनुभवी कंधों पर बैठकर देखता
पूछ लेता बीच बीच में
कैसी है दुनिया,
बता देता यूं ही अनुभव
कि तेरे-मेरे जैसी ये दुनिया
और शब्दों के पीछे बिखरे पन्नों में
समय की स्याही के रंग देखने लगता,
कोमल रंगों को पक्का होने तलक
कितने रंग देखने होंगे,
बचपन से बुढ़ापे के बीच
उम्र की नादानियां भूल जाती
अपनी ताकत की दिशायें- सीमायें
ख्वाबों-हकीकतों के साथ
जब उम्र की आँखों पर चढ़ने लगते
अनुभव के चश्में तब
तस्वीरों के रंग समझ में आते,
बचपन के सवाल सुनती
युवा दिल की उलझनें देखती
अपने भी कितने सवालों- उलझनों के
हल खोजती
वो
अनुभवी उम्र
---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Sunday 6 September 2015

आनलाइन फार्म

लम्बी-लम्बी कतारों में
मुरझा जाते चेहरे
इंतजार करते-करते,
आनलाइन दर्ज
होनी थी बेरोजगारी की टीस,
चालीस-छियालीस
जगहों के लिए
पाँच-छह लाख से
ऊपर जाती संख्याओं
में खुद को दर्ज
कराते उंगलियां
थरथराती,
काफी जद्दोजहद के बाद
जरूरतों को आनलाइन
फार्म में दर्ज करने की खुशी
आँखों में नये सपने
सजाने को सजग
हो जाती धीरे-धीरे,
तारीखों के साथ
बीतते समय में इंतजार
करते -करते
धुंधली चमक
और फीके चेहरे  लिये
फिर से लगती
लम्बी कतार
आनलाइन फार्म
भरने के लिए \
------ नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Thursday 27 August 2015

सांकल ( दरवाजे की डोर)

खोल दी मैंने
अपने और कई घरों के
दरवाजों की सांकल आहिस्ते से,
ये सोचकर कि
रोशनी का साथ होना भी जरूरी ,
बहुत अंधेरा होता है
कितने चेहरे, कैसे चेहरे हैं
कुछ पता नही चलता,
ऐसे में घर की चौखट से
निकलो तो
रास्तों पर भी अंधेरा ही मिलता ,
मिल जाते वहाँ अनगिनत पैर
नही दिखते जिनके चेहरे मगर,
कुछ पैर चलते - भागते
कुछ डगमगाते हुए
लगते जो कि आते हुए
अपनी ओर ही,
ऐसा एहसास होता अचानक
कि कई विषधर चले आ रहे हों
उन पैरों  की जगह,
कई दूसरे पैर उन पैरों को देख
परवाह नही करते और बेफिक्र
अपनी राह चलते,
कई और तो चुपके से
अपने को महफूज रखने को
दिशायें तलाशते,
लेकिन कोई मेरे डरे, सहमें हुए
पैरों के साथ नही चलता,
ये पैर किसके हैं नही पहचाने जाते
उनके चेहरे भी
क्योंकि घर से ही शायद
अंधेरा मेरे साथ चल रहा होता,
तभी तो आज मैंने
घर से निकलने के साथ
खुद ही खोल दी है अपने और
अपने रास्तों में मिलते घरों के
बंद दरवाजों की सांकल
कि रोशनी लेकर साथ चलूं
और लौटकर आ सकूं
अपने घर को शायद
मैं , सुरक्षित
----- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Thursday 20 August 2015

चेहरे

नकाबों में छुपे हैं चेहरे कितने
झूठे थे ख्वाब जो, वो सुनहरे कितने
निगाहें भी निगेहबां भी हमारे वो
दिखाये अक्स जो, वो दोहरे कितने

----  नीरु ( निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी)

Sunday 16 August 2015

सच-झूठ

जिंदगी के अनेक रूप होते हैं,कभी छाँव तो कभी धूप,ऐसे ही कभी बदलते मौसम जैसे रंग बदलते हैं रिश्ते भी, फिर भी मन की डोर से बंधे रिश्ते कभी मन से दूर नही होते|
      वसुधा की माँ के असमय दुनिया से जाने के बाद उसके पिता भी टूट से गये थे ,कुछ दिनों बाद उन्हें भी लकवे की बीमारी ने बेबस कर दिया , अब घर चलाने की सारी जिम्मेदारी वसुधा पर ही आ गई आखिरकार वह ही तो सबसे बड़ी संतान थी उसके दो छोटे भाई-बहन अभी बहुत छोटे थे |
   समय पंख लगाकर उड़ान भरता बहुत दूर निकल आया और समय के साथ - साथ वसुधा कालेज़ में प्रोफेसर  और संजय बैंक में आफिसर हो गये थे केवल सुगंधा , सबसे छोटी, अभी कालेज़ के आखिरी साल में पढ़ रही थी|
     संजय और सुगंधा अपनी दीदी वसुधा को अपनी माँ जैसी ही मानते थे, वो उनके हर सुख-दुःख में उनके साथ हमेशा रहती थी, पिता की निगाहों में हमेशा अपनी बेटी के लिए गर्व की चमक दिखाई देती थी|
        वसुधा को ऐसा एहसास होने लगा था कि संजय और सुगंधा के अपने -अपने कुछ सुनहरे सपने सजने-संवरने लगे थे जिनमें उनके सपनों के साथी की खुशबू समाई थी |
         वसुधा ने यूं ही बातों -बातों में अपने इस एहसास की पुष्टि भी कर ली और शरमाते -सकुचाते संजय ने विशाखा और सुगंधा ने देवेश के साथ अपने प्रेम को स्वीकार भी कर लिया |
         वसुधा के लिए उसके भाई-बहन और पिता जी के अलावा और कोई कीमती न था, उसने संजय और सुगंधा के उनके सपनों के साथी के संग उनके जीवन की डोर बाँधने का फैसला कर लिया , साथ में पिताजी से इस बारे में सलाह-मशवरा भी किया, घर में सभी वसुधा के फैसले से बहुत खुश थे |
          अपने भाई-बहन के विवाह तैयारियाँ करने में वसुधा दिन भर भागते-दौड़ते निढाल हो जाती, एक तरफ कालेज़ की दूसरी तरफ घर की और फिर विवाह की जिम्मेदारियाँ भी वसुधा पर ही थी, थकान -कमजोरी से उसका चेहरा पीला पड़ गया, पिछले कुछ महीनों से जुक़ाम -बुखार उसका पीछा नही छोड़ रहा था |
         वसुधा की हालत देखकर संजय उसे लेकर डा० निर्भय की क्लीनिक पहुँचा | डा० ने उसे ब्लड टेस्ट कराने की सलाह दी ताकि इलाज में आसानी रहे | ब्लड टेस्ट कराने के दूसरे दिन जब संजय टेस्ट रिपोर्ट लेने पैथालॉज़ी  पहुँचा तो वहाँ बहुत भीड़ थी , इधर संजय को भी बहुत जल्दी थी | संजय के बार-बार कहने के कारण पैथॉलाज़ी  वाले ने  भी जल्दी में उसे रिपोर्ट पकड़ा दी |
          रिपोर्ट लेकर संजय डा० निर्भय के पास पहुँचा , रिपोर्ट पढ़कर डा० ने धीमे से कहा -' वसुधा का ख्याल रखो और जल्दी से इलाज़ शुरु कराओ, सब ठीक हो जायेगा |
           संजय ने पूछा - ' क्या हुआ है, सब ठीक है न ' डा० निर्भय बोले कि चिंता की कोई बात नही , ये बीमारी कई वजह से होती है, इतना सुनकर संजय ने डाक्टर के हाथ से रिपोर्ट लेकर पढ़ा और पढ़ते ही चुपचाप घर की ओर चल दिया |
          घर पहुंचने पर दरवाजे पर ही सुगंधा पिता जी को व्हील चेयर पर साथ लिये मिली, संजय ने दोनों को धीमे से कुछ बताया , सुनकर सबके चेहरे गंभीर हो गये थे |
          वसुधा ने कालेज़ से छुट्टी ले रखी थी , वह घर पर ही आराम कर रही थी लेकिन वो देख रही थी कि घर में सबका व्यवहार उसके साथ पहले जैसा नही था, जब उससे नही रहा गया तो वह संजय से पूछ बैठी -" क्या बात है संजय, सब मुझसे दूर-दूर क्यों रहते हैं ", संजय ने बड़ी तल्खी से जवाब दिया, - ये तो आप अपने आप से पूछिये , , जब तक वसुधा कुछ और पूछती संजय ने उसकी ब्लड टेस्ट रिपोर्ट उसके सामने लाकर पटक दी, रिपोर्ट पढ़ते ही वसुधा संज्ञाशून्य -सी हो गई, उसने सुगंधा को आवाज़ दी तो सुगंधा फुफ़कारते हुए बोली बोली -" क्या है?  अब तो आपकी असलियत सबको मालूम है" | स्तब्ध वसुधा समझ नही पा रही थी कि कैसी असलियत , वह फफकते हुए पिताजी के पास गई लेकिन वो उसकी तरफ से मुँह फेरकर दूसरी ओर देखने लगे |
             सुबह-सुबह दस्तक हुई किसी के आने की दरवाजे पर तो वसुधा चौंककर उठ बैठी, शायद डा० निर्भय होंगे वो इस समय कभी-कभार पिता जी का हाल-चाल पूछने आ जाया करते थे | दरवाजा खोलते ही चिर-परिचित मुस्कराहट सुबह की किरणों से भी ज्यादा सुकून देने वाली लगी वसुधा को |
              इतना उदास चेहरा तो नही देखा कभी वसुधा का, डा० निर्भय वसुधा को देख कर मन ही मन सोच रहे थे कि संजय पिताजी को लेकर आया और नमस्कार करते हुए डा० निर्भय से बैठने के लिए कहा | 
              चाय की चुस्कियां लेते हुए डा० निर्भय वे पूछा -" वसुधा, आपकी तबीयत कैसी है अब, आपने अभी तक अपना इलाज़ भी नही शुरू किया ?" बात सुनते ही वसुधा आँखों में आँसू छिपाये वहाँ से हटकर अंदर की ओर चली गई, डा० निर्भय ने चिंतित निगाहों से संजय से सवाल किया , तो वह बोला-" डा० साब , हमें अपनी दीदी पर बहुत भरोसा और गर्व था लेकिन उनकी इस बीमारी  ने सब खत्म कर दिया,, आखिर दीदी ने ऐसा क्यों किया?" |
               डा० निर्भय संजय की बात सुनकर आश्चर्य से बोले-" ये क्या कह रहे हो संजय, इतना पढ़-लिखकर भी ऐसी बातें तुम्हें शोभा नही देती, आखिर तुम कहना क्या चाहते हो" |
               संजय की चुप्पी ने निर्भय के सवाल का जवाब दे दिया, डा० निर्भय बोले- " संजय, ये बीमारी कई और कारण से भी हो सकती है, ये केवल अवैध संबंधों से ही नही होती, एड्स के मरीज़ का खून स्वस्थ इंसान को चढ़ाया जाये, या संक्रमित सूई के इस्तेमाल आदि से भी तो हो सकती है लेकिन छूने, साथ खाने आदि से  नही होती, क्या तुम ये सब नही जानते?"   डा० निर्भय ने वसुधा का फिर से ब्लड टेस्ट कराने को कहा  लेकिन जैसै किसी ने उनकी बात ही न सुनी हो |
              पिताजी ने डा० निर्भय को इशारे से कहा कि कुछ भी हो अब बदनामी तो हो ही गई है, अब न संजय का ब्याह हो पायेगा और न तो सुगंधा का, | डा० निर्भय की आवाज़ में दर्द था-" आप सब ऐसा क्यों सोचते हैं,क्या आप लोगों का भरोसा इतना कमजोर था, वसुधा ने कितने त्याग , कितना संघर्ष किया है आप सबके लिए, क्या आप लोग नही जानते कि वसुधा कैसी है, वो तो बहुत पवित्र है, आप लोग अपने भरोसे की डोर इतनी कमजोर न करिये," |
             पल भर को लगा जैसै घर में कोई है ही नही," क्या आप सब मुझे वसुधा का हाथ सौपेंगे" खामोशी को तोड़ती इस आवाज़ के पीछे सबने डा० निर्भय के चेहरे पर निर्णय का तेज देखा, यूं लगता था कि आधी उम्र बीत जाने के बाद भी कुंवारे, डा० को अपनी जीवनसंगिनी चुनने का हर्ष ,इस निर्णय के साथ गर्व में झलक रहा हो-" हाँ , मैं वसुधा का हाथ थामना चाहता हूँ, क्या आप सब मुझे वसुधा से विवाह की अनुमति देंगे" |                          वसुधा और बाकी लोग डा० निर्भय के फैसले को बदल न सके और दूसरे दिन ही उनका विवाह हो गया |
              डा० निर्भय ने शहर के सबसे अच्छे पैथॉलाज़ी में वसुधा का ब्लड टेस्ट फिर से कराया लेकिन ये क्या ? ये रिपोर्ट तो कुछ और ही कह रही थी, डा० निर्भय ने एक बार फिर टेस्ट कराया लेकिन रिजल्ट फिर वही , रिपोर्ट तो नार्मल बता रही थी इस बार भी, बस स्नोफीलिया बढ़ी थी वसुधा की | डा० निर्भय ने पूछा कि इसके पहले किस पैथॉलाज़ी में ब्लड टेस्ट कराया गया था , पता मालूम कर वो पहुँचे और वसुधा की रिपोर्ट दिखाई फिर पूछा कि ये रिपोर्ट कैसै और क्यों दी गई , सच्चाई ये थी कि भीड़ अधिक रही संजय की जल्दबाजी ने पैथॉलाज़ी वाले से एक गलती करवाई थी कि किसी और मरीज़ की रिपोर्ट वसुधा को दे दी गई |
             सच्चाई जानकर वसुधा के घरवालों को खुशी से ज्यादा अपने किये पर शर्मिंदगी थी, कोई आँखें नही मिला पा रहा था वसुधा से | वसुधा तब भी उदास थी और अब भी क्योंकि उसकी पहली रिपोर्ट भले ही झूठी रही हो लेकिन उसके कारण  उसने जो दर्द जिया वो सच था | इतना तो था कि इसी सच-झूठ के बीच जीवन का विश्वास आज उसका जीवनसाथी है | 
-------- निरुपमा मिश्रा "नीरू"

Saturday 15 August 2015

देश

देश के लिए भी तो मशविरा करिये
कुर्बान अपनी जिस्म-ओ-जां करिये
अंधेरा न हो रास्तों पर कभी भी
हो सके तो चिराग़ -सा जला करिये
---- निरुपमा मिश्रा " नीरू"

Saturday 8 August 2015

परिवर्तन

जानती हूँ जीवन में
आगे जाने के लिए अपनी मजबूत
जगह बनाने के लिए
अपने को बहुत बदलना पड़ता है,
पर इस बदलने की
कोशिश में कहीं हम खुद को ही
न  कहीं भूल जायें,
अपने चेहरे पर किसी और का
मुखौटा न लगायें,
जरूरी है कुछ पाने के लिए
कुछ खोना,
लेकिन जरूरी तो नही
ऐश्वर्य पाने के लिए
ईश्वर को खोना,,,,
----- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Sunday 2 August 2015

मित्रता

प्यार,स्नेह,ममता का भला कोई क्या मोल दूँ मैं
शब्दों से ऊपर जो, उसे कोई क्या बोल दूँ मैं
रिश्तों में दोस्ती है तो कायम दोस्ती से रिश्ते
साँसें हैं जिनसे,नाम कोई क्या अनमोल दूँ मैं
----- निरुपमा मिश्रा "नीरू"

Tuesday 28 July 2015

कृतज्ञ राष्ट्र की भावभीनी श्रृद्धांजलि,, सलाम हमारा आदरणीय कलाम जी को

गर्व उन्नत भाल के थे सम्मान, विजय-तिलक सरीखे
राष्ट्र-नयनों ने उनके संग निज स्वप्न हैं सफल देखे
शिक्षक थे हिंदुस्तानी, तो शिक्षक समान ही विदा हुए
ज्ञान,विज्ञान,स्वाभिमान का आजीवन संगम अनूठे
------ नीरु 

Saturday 25 July 2015

मैं हूँ मुझमें

मैं कभी
अपने से अलग तो नही,
डरती अपने को खोने से
कहीं,
जीवन की चौखट पर रहे
सुख-दुःख मेहमान सदा,
सीखी है मैंने
जिंदगी
हँसकर जीने की अदा,
आँखों में मेरे संजोती 
आशायें
रोशनी
दर्द में भी होंठों पर हँसी,
बिखराव में सबको समेटते
अगर कभी मैं 
अंधेरों में भटकती 
तो मेरी आस्थायें मुझे खुद से

मिलातीं

मेरे संस्कार जीवंत रखते 

मेरे जीवन- अस्तित्व को,
बहुत अच्छा  कि मैं
कहीं खोई नहीं,
मिल ही जाती 
आसानी से
मैं हूँ शाश्वत
मुझमें
------- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Monday 20 July 2015

राह परछाई नही

साथ चलती किसके कोई राह परछाई नही
कौन जानें मुश्किलें कब साथ में आई नही

दे गया कोई कली की आँख में सपने नये
आस में वो शाम तक यूँ ही तो मुरझाई नही

मीत हैं सुख के सभी कोई कभी दुःख में नही
भीड़ में रहते हुए क्या साथ तन्हाई नही

भूख ने छीना यहाँ  ईमान भी इंसान का
शर्म आती है मगर मजबूर टिक पाई नही

बदलते मौसम कहाँ तुमको कहा हमने कभी
देखने को असलियत तो पास बीनाई नही
------ निरुपमा मिश्रा " नीरू"

Saturday 18 July 2015

अज्ञानी

चलो, उठाओ किताबी बातें
कहीं और लेकर जाओ,
यहाँ हर शब्द
धुंधले नज़र आते हैं
जब अनुभव से परे
बातें बताते हैं,
खुल जाये मन की आँखें
तो खोल लो,
अपनी भावनायें
भी तो तौल लो,
अपने फर्ज़ से मुँह छिपाना,
परछाई-मृगतृष्णा
के पीछे भागना
क्या ज्ञान कहलाता,
रहने दो
फिर तो मुझे
अज्ञानी बने रहना
भाता ,,,,
----- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Tuesday 7 July 2015

जीवन की गाड़ी

एक की अपूर्णता पूर्ण हो जाती
दूसरे का सामर्थ्य पाकर
हाथ में हाथ थामें
कदम मिलाते कदमों से,
सुनते हैं एक- दूजे के
सुख-दुःख छिपे उनकी
धड़कनों में,
जीवन की गाड़ी के दो पहिये बराबर
सहयोग करते,
तमाम झंझावात- खुशियां
समेटते,
एक राह के हमसफर
जीवन भर का साथ
जीवनसाथी
अगर
विपरीत रूप लेकर
अलग - अलग
दिशाओं के रुख किये चलते रहें
तो जीवन नरक से बदतर
हो जाता ,फिर
तो साथ - साथ चलना
सम्मान संजोये रखने की
मजबूरी कहलाता
----- नीरु ' निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Friday 3 July 2015

तुम

बिना तुम्हारे मैं एक दिन की
कल्पना करूं भी तो कैसे,
तुम्हे खोने के ख्याल से
भी डरती ,
दूरियां न आयें कभी
कुछ कहने कुछ सुनने की
आस में हर पल रहती,
वो अनकहे शब्द
जो कहना चाहे थे मैंने
पर कहने- सुनने के बीच
आ जाते हैं कुछ
अधूरे सपने,
बिखर जाती
सपनों की तरह
जब तुम्हे सपनों में खोया
हुआ पाती,
महसूस करो न तुम भी,
भले ही पूरे न हों
ये अधूरे सपनें,
रहें हमेशा
अपने बस अपने,
मेरी खामोशियां
कहतीं,
कि तुम हो मेरे,
मेरे हो सिर्फ  और सिर्फ
तुम
----- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Wednesday 1 July 2015

स्वयं

जिसने जीवन को
जाना
स्वयं को
पहचाना
वो
सागर की तरह
गंभीर
होता है,
उसमें
समायी
होती हैं
प्यार-अपनेपन
की
नदियां,
बेवजह
की हलचल
नही होती,
भावनाओं के तूफान
खामोश
रहते हैं
हृदय में
------ निरुपमा मिश्रा " नीरू"

Saturday 27 June 2015

गहरा अंधेरा

आता है सभी के जीवन में
प्रेम,विश्वास, अपनेपन का सवेरा,
लाता है जो अंधेरों में
आत्मविश्वास की रोशनी,
पर ये तभी तो होगा
जब मन के द्वार
बंद न हों हमारे,
वरना धुंधलका
घिरता ,बढ़ता जाता अंधेरा,
जो लिपटा रहता
है हमारे चारो तरफ
सर्प की तरह,
डसते रहते दिन के उजाले
गहरा जाता गहरी रातों का
अंधेरा
-नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Monday 22 June 2015

थाह

कौन है अपना कौन पराया थाह मिलेगी कहाँ
जो सरल है उसे सहजता से राह मिलेगी कहाँ
जब तक न पहचानेंगे नयन रंग इस संसार के
सपन को साकार करने की सलाह मिलेगी कहाँ
----- निरुपमा मिश्रा " नीरू "

Friday 12 June 2015

शीतल छाँव तुम

जलते-तपते हुए जीवन में शीतल- मधुर छाँव हो तुम
पलकों की पगडंडियों पर तो सपनों के गाँव हो तुम

मैं सुखों की शाम बनी तुम आशाओं की भोर हुए
मैं प्यासी धरती जैसी  तुम तो घटा घनघोर हुए
मिल जाती चाहत को मंजिल मेरे वो लगाव हो तुम 

जलते-तपते हुए जीवन...

पलकों की पगडंडियों....

 विह्वल- विभोर होकर जब तुमने पुकारा है मुझको
अनुभूतियों ने दिल की तो फिर संवारा है मुझको
उबारे उलझन से मुझे विश्वास की वो नाँव हो तुम

जलते-तपते हुए जीवन....

पलकों की पगडंडियों...

अतृप्त मन-जीवन है तो कभी मधुमास दिया
कभी सराहे जगत यूं तो कभी परिहास किया
नही पराजय कोई जग- शतरंज में वो दाँव हो तुम

जलते-तपते हुए जीवन में शीतल- मधुर छाँव हो तुम

पलकों की पगडंडियों पर तो सपनों के गाँव हो तुम
---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Monday 25 May 2015

कैसै कह दे

शुरुआत कहाँ से
और आखिरी कहाँ
कैसे कह दे कोई
दरिया है ये कि
समंदर
कश्तियों को
मालूम नही
---- निरुपमा मिश्रा "नीरू "

Tuesday 19 May 2015

मौत

ठहरे दर्द को लेकर तो हर पल पुकारा होगा
तिल-तिल मर रही इंसानियत को धिक्कारा होगा
जिंदगी तकलीफ देती रही उसे अंतिम साँस तक
मौत ने भी आखिर खामोशी से मारा होगा
----- निरुपमा मिश्रा "नीरू "

Saturday 16 May 2015

चाह

अपनेपन की चाह अपने रिश्तों में रही
दिल की बात दिल से हमने किश्तों में कही
भावना की चाह है नही बात कमियों की
हम भी तो इंसानों में फरिश्तों में नही
---- निरुपमा मिश्रा " नीरू "

Thursday 14 May 2015

उम्मीदें

छोड़ो भी शिकायती जुमले ,
सब कुछ कह भी दो
तो भी कुछ  न कुछ
रह जाता,
उम्मीदें सबकी कोई
कहाँ पूरी कर पाता,
प्यार-सम्मान- भरोसा
ये एहसास जिंदा न रहे
अगर तो इंसान भी
जीते - जी मर जाता ,
घुटता रहता है हरदम
टूटता और बिखर जाता,,
---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Monday 27 April 2015

दर्द

सिहर-सहम उठता ये ज़माना हर आँख रोई
जिंदगी ने जब- जब भी अर्थी मौत की ढोई
कहीं टूटे सपनें किसी के छूट गये अपने
पाया इस दर्द को जिसने कब भूलता कोई
--- निरुपमा मिश्रा " नीरू "

Monday 20 April 2015

लौट आना प्रिये

उगते हुए सूरज हो तुम
अभी
बहुत होगा वंदन- अभिनंदन ,
पर दर्प से दीप्ति तुम्हारी प्रसन्नता
जब चरम पर होगी क्या देख सकोगे
तुम किसी मन की पीड़ा ,
फिर जब तुम ढलने लगोगे
होंगे द्वार बंद प्रशंसा के
कौन समझेगा तुम्हारी पीड़ा ,
तब भी तुम्हारे सहारे
हैं ये जो चाँद - सितारे
घर आने की तुम्हारी
राह देखेंगे
कि लौट आना प्रिये
जीवन के पथ पर
द्वार खोले मिलेगा
तुम्हें कोई अपना
तुम्हारी रश्मियों में
देखने को
अपना सवेरा
---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी'

Tuesday 31 March 2015

जीवन की बगिया

मैं सुखों की शाम बनूं तू आशाओं की भोर बने
मैं रहूँ तेरी प्राणप्रिया तू साँसों की डोर बने
जीवन की बगिया मेरी तुम्हीं संवारना सजन
प्यासी धरती जैसी मैं हूँ तू घटा घनघोर बने
---- नीरु ( निरुपमा मििश्रा त्रिवेदी )

Sunday 29 March 2015

बंद कमरे

अंधेरे बंद कमरे
कोने में दुबके-से हैं दिन,
जिन्हें नसीब नही होता
मुँह देखना कभी रोशनी का,
हर मकान की खिड़कियां ,दरवाजे बंद हैं
इस डर से कि रास्ते का सूरज उनके
अंधेरों का राज़ न जान ले,
छुपाते एक दूसरे से ग़म और खुशी
डरती है आने से होंठों पर हँसी,
रोशनदान तक में स्वार्थ का पर्दा पड़ा,
अब तो जो कभी - कभार
आ जाया करती थीं हवायें
आकर लौट जाती,
पता नही कैसे जी लेती साँसें
घुटन भरे बंद कमरों में ,
क्यों खो जाती वो ताकत
जो सामना करती एक दूसरे का,
समेटकर बिखरती रोशनी
अपने दिनों के दामन भरकर
अब जी लेते हैं
हम अपनी साँसें
खुली फिजाओं में
---- नीरु 'निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी' 

Sunday 22 March 2015

प्रश्नचिन्ह

तुम्हारी देहरी
पर रखा दीपक
प्रतीक्षा में रहा
वर्षों तलक,
कब दोगे
विश्वास से भीगी
स्नेह की बाती,
एक दिन
अचानक
नेह के आशीष से
भिगोई
आँसुओं में बाती,
अपनेपन की लौ
में जिंदगी लगी
जगमगाती,
दमकते रुप को
उसके देख तुम
उसे अपना बताने लगे,
उसकी सफलता में
अपने योगदान
गिनाने लगे,
फिर से दीपक
के मन में
कहीं अंधेरा पलने लगा
तुम्हारा ये प्रेम
उसे
प्रश्नचिन्ह बनकर
छलने लगा,
----- निरुपमा मिश्रा "नीरू "

Wednesday 18 March 2015

प्रतिफल

अंधेरी रात की
टहनी पर अटका
चाँद
सोचता है,
क्यों आग उगलती
किरणें सूरज की
पहले से भी अधिक ,
बादल अपनी
समय सीमा से इतर
भटकते कहाँ पर,
कहाँ वो सुबह -शाम
चहचहाना
चिड़ियों का,
हरी-भरी धरती थी
अब वहीं
कितने उग आये जंगल
कंक्रीटों के,
जाल
एक अदृश्य
बिछा हुआ सा,
कहीं जब कभी
सुनाई देती है
बहते पानी की कलकल ,
प्रश्नावली सी ध्वनि
उत्तर -प्रत्युत्तर
बीते कल
आज
आने वाला कल,
मिलेगा क्या नही ?
कभी हमें अपने
कर्मों का प्रतिफल
---- निरुपमा मिश्रा "नीरू "

Wednesday 11 March 2015

ख्वाबों में बुला लेना मुझे

याद आये अगर ख्वाबों में बुला लेना मुझे
खुशबू जैसी हूँ साँसों में बसा लेना मुझे

रहे चाहत जब भी कुछ गुनगुनाने की
रहे हसरत जब भी सब भूल जाने की
गीत  के आँगन में सुरों से सजा लेना मुझे

तन्हा-तन्हा जब भी जिंदगानी लगे
महफिलें तुम्हें  जब भी बेगानी लगे
अपनी यादों के गुलशन से चुरा लेना मुझे

मन से मन के अपने कभी न दूरी हो
मेरा दिल,धड़कनें हर साँस तेरी हो
तन्हा छोड़े जमाना तो अपना लेना मुझे

उदास लम्हों में कहीं खुशी खो जाये
सहमी-सहमी कभी जिंदगी हो जाये
भेज कर अपना मन-डाकिया बुला लेना मुझे

प्यार दो-चार बातों की सौगात नही
दिन के साथ वहीं रहती कब रात नही
वफाओं-इरादों से तुम आजमा लेना मुझे
---- निरुपमा मिश्रा "नीरू "

Saturday 7 March 2015

वनिता

ममता - प्यार
मन में
पिरोती हूँ,
संवेदनायें
भावनाएं
हृदय में संजोती हूँ,
सृजन -मानवता
संहार - दानवता
के आधार भी
बनती हूँ,
जीवन मुझसे ही
पनपता और
जीवंत रहता ,
कब मेरा होना
व्यर्थ रहता,
मैं हूँ वनिता
संस्कृति - संस्कार
संसार के विस्तार
की धुरी ,
जगत में व्याप्त
निराकार की हूँ
साकार -सजल
माधुरी
---- निरुपमा मिश्रा "नीरू "

Thursday 5 March 2015

छलके रंग हैं

मनमीत मुस्काये , छलके रंग हैं
होली में सभी के, बहके ढंग हैं
लजाये रूपराशि,विकल सजन-नैन
प्रीति-भाव पल्लवित,महके अंग हैं
--- निरुपमा मिश्रा " नीरू "

फागुन

धरती ने ओढी, चुनरिया प्रीत की।
चलती हूँ मैं भी, डगरिया  मीत की।।

मन के द्वारे रंग, फागुन भरने आये,
लाज की देहरी भी, पाहुन लांघ जाये,
देखूँ अब मैं भी, नजरिया रीत  की।।

अब सभी यातनायें, जग की विस्मृत हुई ,
अब सभी कामनायें, प्रिय की अमृत हुई ,
रहती मन में , लहरिया संगीत की।।

रंग रंगाऊं, प्रियतम-सुमन की लगन में,
जग भूल जाऊँ , प्रेम-प्रियतम की जतन में,
धुन सजाऊँगी, संवरिया गीत की।।

चलती हूँ मैं भी, डगरिया मीत की।।
--- नीरु ( निरुपमा मिश्रा त्रिवेदी(